जहा पर बैठ हम घंटो तलक बतीयाया करते थे,
जहा एक घर के पकवानों को मिलके खाया करते थे !!!
गर्मियों की उन शामों में जब पानी के टेंकर से,
गली भर के घरों में पानी हम पहुचाया करते थे !!
महुल्ले की वो छोटी-बड़ी हर बात बंटती थी,
और हर बार पेंच में मेरी ही पतंग कटती थी.!!
जिन सड़कों पे मैंने साइकल सीखी थी गिर गिर कर,
वो इन कांक्रेट की सड़कों के नीचे दब गयी शायद !!
मेरे शहर में बसने वाले वो महुल्ले गुम गए शायद !!
सर्दियों में जलाकर सिगड़ियों को चाय पीना कुछ अलग था ,
और उन गर्मियों में.. छत में सोने का मज़ा भी कुछ अलग था!
अलग था सामने वाले चाचा का मेहेरबान होना,
फिर पेट्रोमेक्स वाली मलाई कुल्फी का स्वाद भी तो कुछ अलग था !!!
ये सोच कर वो स्वाद अब भी जुबाँ पे पसीच आता है,
मगर मेरा महुल्ला अब कही नज़र नहीं आता !!
वो सारे घर.. इन कांच की दीवारों के पीछे चुप गए शायद,
मेरे शहर में बसने वाले वो महुल्ले गुम गए शायद !!
...... गौरव